Trilochan Shastri Biography in Hindi : त्रिलोचन शास्त्री का जीवन परिचय

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त्रिलोचन शास्त्री का जीवन
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त्रिलोचन शास्त्री का जीवन परिचय | Trilochan Shastri Biography in Hindi

जन्म तथा शिक्षा

त्रिलोचन शास्त्री का जन्म 20 अगस्त, 1917 को उत्तर प्रदेश में सुल्तानपुर ज़िले के कठघरा चिरानी पट्टी नामक स्थान पर हुआ था। इनका मूल नाम वासुदेव सिंह था। त्रिलोचन शास्त्री ने ‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’ से एम.ए. अंग्रेज़ी की एवं लाहौर से संस्कृत में ‘शास्त्री’ की डिग्री प्राप्त की थी।

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त्रिलोचन शास्त्री का जीवन

बाज़ारवाद के विरोधी

उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव से ‘बनारस विश्वविद्यालय’ तक अपने सफर में त्रिलोचन शास्त्री ने दर्जनों पुस्तकें लिखीं और हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। शास्त्री जी बाज़ारवाद के प्रबल विरोधी थे। हालांकि उन्होंने हिन्दी में प्रयोगधर्मिता का समर्थन किया। उनका मानना था कि- “भाषा में जितने प्रयोग होंगे, वह उतनी ही समृद्ध होगी।” त्रिलोचन शास्त्री ने हमेशा ही नवसृजन को बढ़ावा दिया। वह नए लेखकों के लिए उत्प्रेरक थे।

हिन्दी के आधुनिक काल के कवियों में प्रतिष्ठित कवि त्रिलोचन का जन्म 20 अगस्त, 1917 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के चिरानी पट्टी-कटघरा पट्टी स्थान पर हुआ था। इनका मूल नाम वासुदेव सिंह था। आपने परिश्रमपूर्वक अपनी शिक्षा पूरी की तथा अध्यापन करने लगे। आप हिन्दी, अंग्रेजी, संस्कृत, उर्दू आदि भाषाओं के ज्ञाता थे। त्रिलोचन ने अंग्रेजी के प्रवक्ता के रूप में नेशनल इण्टर कॉलेज, जौनपुर में कार्य किया। आप अपने स्वभाव के अनुरूप दूसरों का सहयोग करने में लगे रहे। आपने विदेशी छात्रों को हिन्दी, उर्दू और संस्कृत पढ़ायी। त्रिलोचन ने कुछ वर्षों तक दिल्ली विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में चलने वाली हिन्दी-उर्दू द्विभाषिक कोश परियोजना में भी कार्य किया। आप सागर विश्वविद्यालय में मुक्तिबोध सृजनपीठ के अध्यक्ष भी रहे। आप 9 दिसम्बर, 2007 को इस संसार से सदैव के लिए विदा हो गए।

साहित्य सेवा :

त्रिलोचन हिन्दी के अतिरिक्त अरबी और फारसी भाषाओं के निष्णात ज्ञाता माने जाते थे। आप पत्रकारिता के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे। 1995 से 2001 तक आप जन-संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। आपको हिन्दी सॉनेट (अंग्रेजी छंद) का साधक माना जाता है। अपने इस छंद को भारतीय परिवेश में ढाला और लगभग 550 सॉनेट की रचना की। इसके अतिरिक्त आपने कहानी, गीत, गज़ल और आलोचना जैसी विधाओं के माध्यम से भी हिन्दी साहित्य को समृद्ध करते हुए अभूतपूर्व साहित्य सेवा की

रचनाएँ :

बहुभाषाविद् त्रिलोचन साहित्य सृजन के साथ-साथ पत्रकारिता में भी सक्रिय रहे। आपकी प्रमुख रचनाएँ इस प्रकार हैं-

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(1) ‘धरती’,

(2) ‘दिगन्त’,

(3) ‘गुलाब और बुलबुल’,

(4) ‘शब्द’,

(5) ‘ताप के तापे हुए दिन’,

(6) ‘उस जनपद का कवि हूँ’,

(7) ‘तुम्हें सौंपता हूँ’ और

(8) ‘अरंधान’

साहित्य अकादमी ने आपको ‘ताप के तापे हुए दिन’ कविता संग्रह के लिए पुरस्कार प्रदान किया।

भाव पक्ष :

सहज अनुभूति को सरल अभिव्यक्ति प्रदान करने में कुशल त्रिलोचन के विषय अपने आसपास से ही लिए गए हैं। लोक जीवन में उनका मन खूब रमा है, इसलिए जन-जीवन को जितनी सहज, स्वाभाविक प्रस्तुति आपके काव्य में हुई है उतनी अन्यत्र दुर्लभ है।

कला पक्ष :

चमत्कार, बनावटीपन तथा दुरूहता से मुक्त त्रिलोचन के काव्य का कलापक्ष अत्यन्त सरल, सुस्पष्ट और प्रभावी है। उन्होंने व्यावहारिक भाषा को महत्व दिया है। वे अलंकारों का सहज प्रयोग करते हैं। प्रतीक और बिम्ब भी उन्होंने लोक-जीवन से ही लिए हैं।

साहित्य में स्थान :

आधुनिक काल के वरिष्ठ कवियों में प्रतिष्ठित त्रिलोचन का लोक जीवन से गहरा जुड़ाव रहा है, उनके काव्य में वह साकार हो उठा है। अपनी सरलता, सहजता, सपाटबयानी तथा सुस्पष्टता के लिए वे चिरकाल तक स्मरण किये जायेंगे। आधुनिक काल के रचनाकारों में त्रिलोचन का महत्वपूर्ण स्थान है।

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रचनाएँ :

शास्त्री जी को ‘हिन्दी सॉनेट’ का साधक माना जाता है। उन्होंने इस छंद को भारतीय परिवेश में ढाला और लगभग 550 सॉनेट की रचना की। इसके अतिरिक्त कहानी, गीत, ग़ज़ल और आलोचना से भी उन्होंने हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। उनका पहला कविता संग्रह ‘धरती’ 1945 में प्रकाशित हुआ था। ‘गुलाब और बुलबुल’, ‘उस जनपद का कवि हूं’ और ‘ताप के ताये हुए दिन’ उनके चर्चित कविता संग्रह थे। ‘दिगंत’ और ‘धरती’ जैसी रचनाओं को कलमबद्ध करने वाले त्रिलोचन शास्त्री के 17 कविता संग्रह प्रकाशित हुए।

कविता संग्रह :

  1. धरती (1945)
  2. गुलाब और बुलबुल (1956)
  3. दिगंत (1957)
  4. ताप के ताए हुए दिन (1980)
  5. शब्द (1980)
  6. उस जनपद का कवि हूँ (1981)
  7. अरधान (1984)
  8. तुम्हें सौंपता हूँ (1985)
  9. मेरा घर
  10. चैती
  11. अनकहनी भी
  12. जीने की कला (2004)
संपादित
  1. मुक्तिबोध की कविताएँ
कहानी संग्रह
  1. देशकाल

पुरस्कार व सम्मान :

त्रिलोचन शास्त्री को 1989-1990 में ‘हिन्दी अकादमी’ ने ‘शलाका सम्मान’ से सम्मानित किया था। हिन्दी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हे ‘शास्त्री’ और ‘साहित्य रत्न’ जैसे उपाधियों से सम्मानित भी किया जा चुका है। 1982 में ‘ताप के ताए हुए दिन’ के लिए उन्हें ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ भी मिला था।

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पुरस्कार और सम्मान (Awards and Honors)

  • 1982 में ताप के ताए हुए दिन के लिए उन्हें साहित्य अकादमी के पुरस्कार दिया गया था.
  • 1989-90 शलाका सम्मान, हिंदी अकादमी
  • हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए ‘शास्त्री‘ और ‘साहित्य रत्न‘ जैसे उपाधियों मिल चुकी है.
  • हिंदी समिति पुरस्कार, उत्तर प्रदेश
  • महात्मा गांधी पुरस्कार, उत्तर प्रदेश
  • भवानी प्रसाद मिश्र राष्ट्रीय पुरस्कार
  • मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, मध्य प्रदेश
  • शलाका सम्मान, हिंदी अकादमी
  • सुलभ साहित्य अकादमी सम्मान
  • भारतीय भाषा परिषद सम्मान

त्रिलोचन शास्त्री एक ऐसा व्यक्तित्व है जो प्रगतिशील काव्य-धारा के प्रमुख कवि के रूप में प्रतिष्ठित हैं एवं आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी के तीन स्तंभों में से एक त्रिलोचन भी है. रागात्मक संयम और लयात्मक अनुशासन के कवि होने के साथ-साथ ये बहुभाषाविज्ञ शास्त्री भी हैं, इसीलिए इनके नाम के साथ शास्त्री भी जुड़ गया है. इनकी भाषा छायावादी रूमानियत से मुक्त है. त्रिलोचन हिंदी में सॉनेट (अंग्रेजी छंद) को स्थापित करने वाले कवि के रूप में भी जाने जाते हैं.

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जन्म और परिचय (Biography)

त्रिलोचन जी का मूल नाम वासुदेव सिंह था. उनका जन्म 20 अगस्त 1917 में चिरानी पट्टी, जिला सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था. उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम.ए. किया एवं लाहौर से संस्कृत में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की. उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के छोटे से गाँव से बनारस विश्वविद्यालय तक अपने सफर में उन्होंने दर्जनों पुस्तकें लिखीं और हिंदी साहित्य को समृद्ध किया. उनका कहना था “भाषा में जितने प्रयोग होंगे वह उतनी ही समृद्ध होगी”. शास्त्री ने हमेशा ही नवसृजन को बढ़ावा दिया. वह नए लेखकों के लिए उत्प्रेरक थे. सागर के मुक्तिबोध सृजन पीठ पर भी वे कुछ साल रहे थे. उनके लिए साल 1945 एक यादगार साल रहा था क्योंकि उस साल उनकी पहली कविता संग्रह धरती प्रकाशित हुई थी.

त्रिलोचन शास्त्री हिंदी के अतिरिक्त अरबी और फारसी भाषाओं के निष्णात ज्ञाता माने जाते थे. पत्रकारिता के क्षेत्र में भी वे खास सक्रिय रहे थे. उन्होंने प्रभाकर, वानर, हंस, आज, समाज जैसी पत्रिकाओं का सम्पादन किया है. त्रिलोचन शास्त्री 1995 से 2001 तक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे और इस के साथ में वे वाराणसी के ज्ञानमंडल प्रकाशन संस्था में भी काम करते रहे एवं हिंदी व उर्दू के कई शब्दकोषों की योजना से भी जुडे़ रहे. उन्हें हिंदी सॉनेट का साधक माना गया है. उन्होंने इस छंद को भारतीय परिवेश में ढाला और लगभग 550 सॉनेट की रचना की. इसके अतिरिक्त कहानी, गीत, ग़ज़ल और आलोचना से भी उन्होंने ही हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है.

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त्रिलोचन जी ने लोक भाषा अवधी और प्राचीन संस्कृत से प्रेरणा ली, इसलिए उनकी विशिष्टता हिंदी कविता की परंपरागत धारा से जुड़ी हुई है एवं अपनी परंपरा से इतने नजदीक से जुड़े रहने के कारण ही उनमें आधुनिकता की सुंदरता थी. प्रगतिशील धारा के कवि होने के कारण त्रिलोचन मार्क्सवादी चेतना से संपन्न कवि थे, लेकिन इस चेतना का उपयोग उन्होंने अपने ढंग से किया. प्रकट रूप में उनकी कविताएं वाम विचारधारा के बारे में उस तरह नहीं कहतीं, जिस तरह नागार्जुन या केदारनाथ अग्रवाल की कविताएं कहती हैं. उनके लेखन में एक विश्वास हर जगह था कि परिवर्तन की क्रांतिकारी भूमिका, जनता ही निभाएगी.

वैसे तो उन्होंने गीत, गजल, सॉनेट, कुंडलियां, बरवै, मुक्त छंद जैसे कविता के तमाम माध्यमों में लिखा, लेकिन सॉनेट (चतुष्पदी) के कारण उनकी एक अलग ही पहचान बनी हुई है. वह आधुनिक हिंदी कविता में सॉनेट के जन्मदाता भी माने जाते है. हिंदी में सॉनेट को विजातीय माना जाता था. लेकिन त्रिलोचन ने इसका भारतीयकरण किया. इसके लिए उन्होंने रोला छंद को आधार बनाया तथा बोलचाल की भाषा और लय का प्रयोग करते हुए चतुष्पदी को लोक रंग में रंगने का काम किया. इस छंद में उन्होंने जितनी रचनाएं कीं, संभवत: हरबर्ट स्पेंसर और शेक्सपीयर जैसे कवियों ने भी नहीं कीं. सॉनेट के जितने भी रूप-भेद साहित्य में किए गए हैं, उन सभी को त्रिलोचन ने आजमाया है.
9 दिसम्बर 2007 को ग़ाजियाबाद में उनका अंतिम समय था.

निधन :

जीवन के अंतिम वर्ष उन्होंने अपने सुपुत्र अमित प्रकाश सिंह के परिवार के साथ हरिद्वार के पास ज्वालापुर में बिताए थे। अंतिम वर्षों में भी वे काफ़ी जीवंत रहे। वार्धक्य ने शरीर पर भले ही असर डाला था, पर उनकी स्मृति या रचनात्मकता मंद नहीं पड़ी थी। त्रिलोचन शास्त्री का निधन 9 दिसम्बर, 2007 को गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ।

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